क्या अड़ियल तबियत है
जब पास है इतना कुछ,
नाखुश हैसीयत है.
कुछ रविवार के छोटे होने से,
शिकवा है मुझको..
और कुछ खुद की बुज़दिली
तले दबी खामोश खैरियत है.
ज़िन्दगी का जहाज़ ढलान पर है,
कुछ तेज़ दिन है लुढ़कते..
और कुछ फिसलते फैसलों
की तेज़ हकीक़त सी है.
Inspired by an old alcohlic, book-lover, propriety advocator, occasional wife-beater, isolated father, an unhappy but intriguing gentleman living in my neighbourhood.
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