जाने क्या फिकर है
इस फकीर को
लगता है जैसे यह,
खिड़की से बाहर की
मायूसी को पहचानता है.
बीड़ी से लड़ते बुड्ढे में,
पान वाले की टेढ़ी हँसी में,
ऑटो वाले की झुर्रियों में,
सड़क के किनारे पलती बेहोशी में,
साला! कौन-सा मोती छानता है!
नहाने जाता है तो
साबुन के बुलबुलों में खो जाता है,
दिन भर कितनों को धोका देता है
रात में नींद को,
धोका देते-देते शायद सो जाता है.
बोलता है बड़े जूनून से,
सुनने वाले भी भतेरे है
उसकी फिकर
बाहर है, उन सब चरसियों की समझ से ,
फिर भी, वो कहता है, "यह लोग.. मेरे है"
जाने क्या फिकर है
इस फकीर को
लगता है जैसे यह,
खिड़की के अन्दर की बात
जानता है.
आइना दिखाता फिरता है
दुनिया को
खुद की परछाई का भेद
कहाँ मानता है!